(212)
जौ जग और बियौ कोउ पाऊँ ।
तौ हौं बिनती बार-बार करि, कत प्रभु तुमहिं सुनाऊँ ।।
सिव-बिरंचि, सुर-असुर, नाग-मुनि, सु तौ जाँचि जन आयौ ।
भूल्यौ, भ्रम्यौ, तृषातुर मृग लौं, काहूँ स्त्रम न गँवायौ ।।
अपथ सकल चलि, चाहि चहूँ दिसि, भ्रम उघटत मतिमंद ।
थकित होत रथ चक्र-हीन ज्यौं, निरखि कर्म-गुन-फंद ।।
पौरुषा-रहित, अजित इंद्रिनि बस, ज्यौं गज पंक पर्यौ ।
विषयासक्त, नटी के कपि ज्यौं, जोई जोई कह्यौ कर्यौ ।।
भव-अगाध-जल-मग्न महा सठ, तजि पद-कूल रह्यौ ।
गिरा-रहित, बृक-ग्रसित अजा लौं, अंतक आनि गह्यौ ।।
अपने ही अँखियानि दोष तैं, रबिहिं उलूक न मानत ।
अतिमय सुकृत-रहित, अध ब्याकुल, बृथा-स्त्रमित रज छानत ।।
सुनु त्रयपाप-हरन, करूनामय, संतत दीनदयाल !
सूर कुटिल राखौ सरनाई, इहिं व्याकुल कलिकाल ।।212।।
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