मोहिं प्रभु तुमसों होड़ परी।
ना जानौं करिहौऽव कहा तुम नागर नवल हरी।
हुतीं जिती जग मैं अधमाई सो मैं सबै करो।
अधम-समूह उधारन कारन तुम जिय जक पकरी।
मैं जु रह्यौ राजीव-नैन, दुरि, पाप-पहार-दरी।
पावहु मोहिं कहाँ तारन कौं गूढ़-गँभीर खरी।
एक अधार साधु-संगति कौ, रचि पचि मति सँचरी।
याहू सौंज संचि नहिं राखी, अपनी धरनि धरी।
मोकौं मुक्ति बिचारत हौ प्रभु, पचिहौ पहतपरी।
श्रम तै तुम्है पसीना ऐहै, कत यह टेक करी।
सूरदास विनती कह बिनवै, दोषनि देह भरी।
अपनी बिरद सम्हारहुगे तौ यामैं सब निबरी।।।130।।