दीन-दयाल, पतित-पावन प्रभु, बिरद बुलावत कैसौ।
कहा भयौ गज-गनिका तारैं जो न तारौ जन ऐसो।
जो कबहूँ नर जन्म पाइ नहि नाम तुम्हारौ लीनौ।
काम-क्रोध-मद-लोभ-मोह तजि, अनत नहीं चित दीनौ।
अकरम, अबिधि, अज्ञान, अवज्ञा, अनमारग, अनरीति।
जाकौ नाम लेत अघ उपजै, सोई करत अनीति।
इंद्री-रस-बस भयौ, भ्रमत रह्यौ, जोइ कहयो सो कीनौ।
नेम-धर्म-व्रत, जप-तप-संजम, साधु-संग नहिं चीनौ।
दरस-मलीन, दोन दुरबल अति, तिनकौं मैं दुख-दानी।
ऐसौ सूरदास जन हरि कौ, सब अघमनि मैं मानी।।।129।।