अपनैं जान मैं बहुत करी।
कौन भाँति हरि कृपा तुम्हारी, सो स्वामी, समुझी न परी।
दूरि गयौ दरसन के ताई, ब्यापक प्रभुता सब बिसरी।
मनसा-बाचा-कर्म-अगोचर सो मूरति नहिं नैन धरी।
गुम बिन गनी, सुरूप रूप बिन, नाग बिना श्री स्याम हरी।
कृपासिंधु, अपराध अपरिमित, छमौ, सूर तैं सब बिगरी।।।115।।