तुम प्रभु मोसौं बहुत करी -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग बिलावल




तुम प्रभु, मोसौं बहुत करी।
नर-देही दीनी सुमिरन कौं, मो पापी तै कछु न सरी।
गरभ-वास अति त्रास, अघोमुख, तहाँ न मेरी सुधि बिसरी।
पावक-जठर जरन नहि दीग्‍हौ, कंचन सी मम देह करी।
जग मैं जनमि पाप बहु कीन्‍हे, आदि अंत लौं सब बिगरी।
सूर पतित, तुम पतित-उधारन, अपने बिरद को लाज धरी।।।116।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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