तुम्हरी कृपा गोपाल गुसाई, हौं अपने अज्ञान न जानत।
उपजत दोष नैन नहिं सूझत, रवि की किरनि बलूक न मानत।
सब सुख-निधि हरिनाम महामनि, सो पाएहुँ नाहीं पहिचानत।
परम कुवुद्धि, तुच्छ रस-लोभी, कौड़ो लगि मग की रज छानत।
सिव कौ धन, संतनि कौ सरबस, महिमा बेद-पुरान बखानत।
इते सान यह सूर महा सठ, हरि-नग बदलि, विषय-विष आनत।।।114।।