हो हो होरी खेलै रँग सौ ब्रजराजकुँवर वृषभानु पौरि।
सुनि मुरली उफ़ ताल बेनु चढ़ा अटा अटारिनि दौरि दौरि।।
जो प्यारी न्यारी छवि सा देखति जलधर कौ छवि अपार।
घन घटा अटा मद छटकै ह्वै उदित चद बादर बिदार।।
जो प्यारे की हितू हुतो ते उझकि झरोखै झाँक बार।
करषै भौंह भाव भेदनि बहु हरषै बरखै रँग अपार।।
इक प्यारी चदन घसि छिरकै एक लिये कर मैं गुलाल।
इक प्यारी केसरि-छिरकति है भनत ‘सूर’ चलि गति मराल।। 132 ।।