हृदय की कबहुँ न जरनि घटी।
बिनु गोपाल बिथा या तन की कैसैं जाति कटी।
अपनी रुचि जित ही जित ऐंचति इंद्रिय-कर्म-गटी।
हौं तित ही उठि चलत कपट लगि, बाँधे नैन-पटी।
झूठौ मन, झूठी सब काया, झूठी आरभटी।
अरू झूठनि के बदन निहारत मारत फिरत लटी।।
दिन दिन हीन छीन भई काया दुख-जंजाल जटी।
चिंता कीन्हैं भूख भुलानी, नींद फिरति उचटी।
मगन भयौ माया रस लंपट, समुझत नाहिं हटी।
ताकै मूँड़ चढ़ी नाचति है मीचति नीच नटी।
किंचित स्वाद स्वान-बानर ज्यौं, घातक रीति ठटी।
सूर सुजल सींचियै कृपा निधि, निज जन चरन तटी।।98।।