अब कैं नाथ मोहिं उधारि -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग केदारौ




अब कैं नाथ, मोहिं उधारि।
मगन हौं भव-अंबुनिधि मैं, कृपासिंधु मुरारि।
नीर अति गंभीर माया, लोभ-लहरि तरंग।
लिए जात अगाध जल कौं गहे ग्राह अनंग।
मीन इंद्री तनहिं काटत, मोट अघ सिर भार।
पग न इत उत धरन पावत, उरझि मोह सिवार।
क्रोध-दंभ-गुमान-तृष्‍ना पवन अति झकझोर।
नाहिं चितवन देत सुत-तिय, नाम-नौका ओर।
थक्‍यौ बीच, बिहाल, बिहवल, सुनौ करुना-मूल।
स्‍याम भुज गहि काढ़ि लीजै सूर-ब्रज कैं कूल।।99।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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