अब कैं नाथ, मोहिं उधारि।
मगन हौं भव-अंबुनिधि मैं, कृपासिंधु मुरारि।
नीर अति गंभीर माया, लोभ-लहरि तरंग।
लिए जात अगाध जल कौं गहे ग्राह अनंग।
मीन इंद्री तनहिं काटत, मोट अघ सिर भार।
पग न इत उत धरन पावत, उरझि मोह सिवार।
क्रोध-दंभ-गुमान-तृष्ना पवन अति झकझोर।
नाहिं चितवन देत सुत-तिय, नाम-नौका ओर।
थक्यौ बीच, बिहाल, बिहवल, सुनौ करुना-मूल।
स्याम भुज गहि काढ़ि लीजै सूर-ब्रज कैं कूल।।99।।