हरि बिनु कोऊ काम न आयौ।
इहिं मावा झूठौ प्रपंच लगि, रतन सौ जनम गँवायौ।
कंचन-कलस, विचित्र चित्रकरि, रचि पचि भवन बनायौ।
तामैं तैं ततछनही काढ़यौ, पल भर रहन न पायौ।
हों तव सँग जरौंगी, यौं कहि, तिया धूति धन खायौ।
चलत रही चित चोरि, मोरि मुख, एक न पग पहुँचायौ।
बोलि बोलि सुत-स्वजन-मित्रजन, लीन्यौ सुजस सुहायौ।
परयौ सुकाज अंत की बिरियाँ, तिनहुँ न आनि छुड़ायौ।
आसा करि करि जननी जायौ, कोटिन लाड़ लड़ायौ।
तोरि लयौ कटिहू कौ डोरा, तापर बदन जरायौ।
पतित-उधारन, गनिका-तारन, सो मैं सठ बिसरायौ।
लियौ न नाम कबहुँ हूँ, सूरदास पछितायौ।।30।।
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