सकल तजि, भजि मन चरन मुरारि।
स्त्रुति, सुभ्रिति, मुनि जन सब भाषत, मैं हूँ कहत पुकारि
जैसैं सुपनैं सोइ देखियत, तैसैं यह संसार।
जात बिलै ह्वै छिनक मात्र मैं, उधरत नैन-किवार।
बारंबार कहत मैं तोसौं, जनम-जुआ जनि हारि।
पाछै भई सु भई सूर जन, अजहूँ समुक्ति सँभारि।।31।।
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