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राग गूजरी
(273)
हरि बिनु कोऊ काम न आयौ ।
इहि माया झूठी प्रपंच लगि, रतन-सौ जनम गंवायौ ।।
कंचन कलस, बिचित्र चित्रकरि, रचि-पचि भवन बनायौ ।
तामैं तैं ततछन ही काढ्यौ, पल भर रहन न पायौ ।।
हौं तव संग जरौंगी, यौं कहि, तिया धूति धन खायौ ।
चलत रही चित चोरि, मोरि मुख, एक न पग पहुँचायौ ।।
बोलि-बोलि सुत-स्वजन-मित्रजन, लीन्यौ सुजस सुहायौ ।
पर्यौ जु काज अंतकी बिरियाँ, तिनहुँ न आनि छुड़ायौ ।।
आसा करि-करि जननी जायौ, कोटिक लाड़ लड़ायौ ।
तोरि लयौ कटिहू कौ डोरा, तापर वदन जरायौ ।।
पतित-उधारन, गनिका-तारन, सो मैं सठ बिसरायौ ।
लियौ न नाम कबहुँ धौखैं हूँ, सूरदास पछितायौ ।।273।।
श्री हरि के बिना कोई काम नहीं आया। इस झूठी माया के प्रपंचों (संसार की मोह-ममता) में लग कर मैंने रत्न के समान मनुष्य-जीवन खो दिया। जिस पर स्वर्ण-कलश चढ़ाया था और जिसमें विचित्र चित्रकारी करायी गयी थी, ऐसे भवन को बड़े परिश्रम से सजा कर बनवाया था; किंतु (प्राण निकलते ही) उस भवन में से (शरीर) तत्काल निकाल दिया गया, एक पल भी उसमें रह नहीं सका। ‘मैं तुम्हारे साथ ही जलूँगी’ (सती हो जाऊँगी) इस प्रकार कह-कह कर झूठी प्रवंचना करके पत्नी ने मेरा धन खाया (मेरी सम्पत्ति का उपभोग किया)। वह चित्त चुराते हुए चला करती थी, किंतु (प्राण निकल जाने पर) उसने मुँह फेर लिया और एक पग भी नहीं पहुँचाया। पुत्रों, सगे-सम्बन्धियों और मित्रों को बुला-बुला कर (उनकी सहायता करके) मैंने बड़ा सुहावना सुयश प्राप्त किया था; कितु अन्त समय में जब काम पड़ा, तब उन्होंने भी मुझे आ कर (मृत्यु से) छुड़ाया नहीं। बहुत-सी आशाएँ करके माता ने जन्म दिया था और करोड़ों प्रकार से लाड़ लड़ाया (प्यार किया) था, किंतु (मरने पर पुत्र ने) उसके कमर का धागा (कटि सूत्र) भी तोड़ लिया और इस पर भी उसका मुख जला दिया (मुख में अग्नि दी)। जो पतितों का उद्धार करने वाले हैं, गणिका को (भी) जिन्होंने मुक्त कर दिया, मुझे शठ ने उन प्रभु को भुला दिया। कभी धोखे में भी उनका नाम नहीं लिया। अब यह सूरदास पश्चात्ताप कर रहा हैं।
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