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हरि, हौं सब पतितनि-पतितेस ।
और न सरि करिबे कौं दूजौ, महामोह मम देस ।।
आसा कै सिंहासन बैट्यौ, दंभ छत्र सिर तन्यौ ।
अपजस अति नकीब कहि टेर्यौ सब सिर आयसु मान्यौ ।।
मंत्री काम-क्रोंध निज दोऊ अपनी अपनी रीति ।
दुबिध-दुंद रहै निसि-बासर, उपजावत बिवरीति ।।
मोदी लोभ, खवास मोह के , द्वारपाल अहंकार ।
पाट बिरथ ममता है मेरै, माया कौ अधिकार ।।
दासी तृष्ना भ्रमत टहल-हित, लहत न छिन बिश्राम ।
अनाचार-सेवक सौं मिलि कै करत चबाइनि काम ।।
बाजि मनोरथ, गर्व मत्त गज, असत-कुमत रथ-सूत ।
पायक मन, बानैत अधीरज, सदा दुष्ट-मति दूत ।।
गढ़वै भयौ नरकपति मोसौं, दीन्हे रहत किवार ।
सेना साथ बहुत भाँतिन की, कीन्हे पाप अपार ।।
निंदा जग उपहास करत, मग बंदीजन जस गावत ।
हठ, अन्याय, अधर्म, सूर नित नौबत द्वार बजावत ।।190।।
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