सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग खंबावती - तिताला
(271) मेरे स्वामी! मेरे दुर्गुणों पर ध्यान मत दीजिये! आपका नाम समदर्शी है, उस नाम के कारण ही मेरा भी उद्धार कीजिये। (देखिये!) एक लोहा पूजा में रखा जाता है (तलवार की पूजा होती है) और एक लोहा (छुरी) कसाई के घर पड़ा रहता है, किंतु (समदर्शी) पारस इस भेद को नहीं जानता, वह तो दोनों को ही (अपना स्पर्श होने पर) सच्चा सोना बना देता हैं एक नदी कहलाती है और एक नाला, जिसमें गंदा पानी भरा रहता है, किंतु जब दोनों (गंगा जी में) मिल जाते हैं, तब उनका एक-सा रूप हो कर गंगा नाम पड़ जाता हैं (इसी प्रकार) सूरदास जी कहते हैं- यह शरीर माया (माया का कार्य) और जीव ब्रह्म (ब्रह्म का अंश) कहा जाता है, किंतु माया के साथ तादात्म्य हो जाने के कारण वह (ब्रह्मरूप जीव) बिगड़ गया (अपने स्वरूप से च्युत हो गया।) अब या तो आप इनको पृथक् कर दीजिये (जीव की अहंता-ममता मिटा कर उसे मुक्त कर दीजिये), नहीं तो आपकी (पतितों का उद्धार करने की) प्रतिज्ञा टली (मिटी) जाती है। |
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