सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग आसावरी
(249) हे शांर्गधनुष के धारण करनेवाले स्वामी! संसार के भय से डरते हुए इस दीन पर कृपा करके इसकी रक्षा कर लीजिये। मुझमें न जप है, न तपस्या है, न स्मरण या भजन ही है; किंतु अपनी शरण में आने की अब लज्जा कीजिये। जल और स्थल में जितने जीव हैं, उतने सब वेश धारण करके (सब योनियों में जन्म लेकर) अत्यन्त दुर्गम और अगम्य पर्वतों (कष्ट प्रद स्थलों) में मैं घूमता रहा। (मेरे शुभ, अशुभ एवं मिश्रित) त्रिविध कर्मों की गिनती करते हुए मूसल और मुद्गर से मार-मारकर मुझे दण्ड देते-देते धर्मराज (यमराज) के दूत भी हार गये। आपने तो वृषभासुर, केशी, प्रलम्बासुर, धेनुकासुर, पूतना, धोबी और चाणूर-जैसे दुष्टों का भी उद्धार कर दिया। अजामिल और गणिका से मैंने कौन-से घटकर (कम) पाप किये हैं, जो आपने मुझ सूरदास को अब अपने चित्त से भुला दिया है। (मैं भी वैसा ही पापी हूँ, अतः मेरा भी उद्धार आपको करना ही चाहिये।) |
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