सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग देवगंधार
सबने स्नेह छोड़ दिया है। हे यदुनाथ प्रभु! मेरे शरीर को बुढ़ापे ने ग्रस लिया है, हाय! सारी प्रतिभा ही नष्ट हो गयी। (मेरी कुण्डली के) तिथि, वार, नक्षत्र, लग्न, ग्रह आदि सब वे ही है (उनमें कोई उलट-फेर नहीं हुआ) और वही मैं हूँ, जिसने सारे वैभव जुटाये थे। किंतु अब कोई (मेरी कुण्डली के) उन अंकों को नहीं पढ़ता। मुझसे लोगों के स्वार्थ सधने का समय चला गया (किसी को स्वाथ सिद्ध होने की मुझसे आशा नही रही)। वह सम्पत्ति, वही भवन, वही यश और वही कुल है; जिसका मैंने विस्तार किया था; किंतु अब सभी का-कुत्ते तक का मुख मेरे देखते-देखते मुझसे दूर चला गया (अब उसी कुल एवं भवन के लोग-यहाँ तक कि कुत्ते भी मुझे मुख दिखाना नहीं चाहते)। वर्ष के दिन-वर्ष बीत जाने पर पंचांग पुराना हो जाता है; बार-बार नवीन पंचाग लिखा जाता है। (मैं भी बीते वर्ष के पंचाग के समान अनुपयोगी तथा उपेक्षित हो गया हूँ।) सूरदास जी कहते हैं- हे प्रभो! अपने कर्मों के दोष को विचार करके अब आपकी शरण में आया हूँ। |
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