सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग धनाश्री
(प्रभो!) दीन जीव आपकी शरण कैसे आये? हे त्रितापहारी! सुनो, यह जीव तो जल-स्थल के सभी मार्गों (योनियों) में भूला हुआ भटकर रहा है। यह अत्यन्त अनाथ है, विचाररूपी नेत्रों से रहित होने के कारण वेदरूपी घर (आश्रय) भी यह कैसे पा सकता है? (विवेक-विचार हो, तब वेद का तात्पर्य समझ में आये)। इसलिये पद-पदपर (हर समय) सकाम कर्म के अंधे (ढके हुए) कुएँ मे ही पड़ता (सकाम कर्म ही करता) है। (आपके बिना) कृपा करके इसी रक्षा कौन करे? सद्दुद्धि और सत्संगति की छड़ी भी इसके हाथ में नहीं, जिसके आधार पर (सन्मार्ग से) चले। दसों दिशाओं में मोह का अत्यन्त प्रबल अपार समुद्र है, अतः अब (यह जीव) क्या करे? भय से निरन्तर पुकार कर रहा है, बड़ा सशंक है; किंतु (पूर्वकृत) पुण्यरूपी आश्वासन का शब्द भी नहीं पाता (पूर्व-पुण्य भी नहीं, जो सत्पथ में ले जायँ)। सूरदास जी कहते हैं- श्यामसुन्दर के चरणों के नखों का प्रकाश प्राप्त हुए बिना (भगवच्चरणों का आश्रय लिये बिना) अन्धकार (अज्ञान) का विनाश कैसे हो सकता है? |
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