सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग कान्हरौ
(284) (ब्रह्मा जी को चतुःश्लो की भागवत का उपदेश करते हुए श्री भगवान कहते हैं-) तब पहले (सृष्टि से पूर्व) मैं ही अकेला था (और दूसरा कोई तत्त्व नहीं था) हे ब्रह्मा जी! सुनिये। निर्मल, कलाहीन, अजन्मा समस्त भेदों से रहित, निर्मल ज्ञान स्वरूप, वही मैं (सृष्टिकाल में) एक हो कर भी अनेक रूप बन कर नाना प्रकार के वेशों में शोभित हो रहा हूँ (सृष्टिस्वरूप भी मैं ही हूँ) इसके पीछे इन (सत्त्व, रज और तमरूप) तीनों गुणों के (साम्यावस्था में) लीन हो जाने पर अकेला मैं ही बच रहूँगा। यह जो सत्य (परमात्मतत्त्व) मिथ्या और मिथ्या (जगत्) सत्य प्रतीत हो रहा है, इसे मेरी माया समझो। सूर्य, चन्द्रमा और राहु का संयोग हुए बिना ही जैसे मन से ही उनका संयोग (ग्रहण-काल में) मान लिया जाता है (वैसे ही मैं माया से युक्त नहीं हूँ, फिर भी माया युक्त लोगों ने मान लिया है)। पाँचों तत्त्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) से बने प्रपंच (संसार) का सब वैभव वैसा ही है जैसे हाथी स्फटिक से अलग रह कर भी उसमें दीखता है (माया में न हो कर भी प्रतिबिम्ब की भाँति चेतन तत्त्व जगत् में भासित हो रहा है)। मैं सब से उसी प्रकार पृथक् हूँ, जैसे सूत अपने में गुँथी मणियों से पृथक् होता है। (मुझमें संसार का कोई सत्ता नहीं; किंतु संसार मुझसे ही सत्तावान् है।) मेरी माया को इस प्रकार समझो- शरीर में जीव वैसे ही निर्लिप्त है, जैसे जल का मच्छर जल में (निर्लिप्त) रहता है। (वह स्वयं माया के आश्रित है, माया उसे पकड़े नहीं है।) मेरे इसी यश (अद्भुत प्रभाव) को सनकादि-मुनि ‘नेति-नेति’ कह कर और अपार मान कर वर्णन करते हैं। सूरदास जी कहते हैं कि पहले ज्ञान (शास्त्रीय ज्ञान) होता है, तब विज्ञान (आत्मानुभव) होता है और तब तीसरी सर्वश्रेष्ठ स्थिति भक्ति की भावना प्राप्त होती हैं उस भक्ति भाव से ही समष्टि (सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड) रूप वही परम तत्त्व व्यष्टि रूप में- एक सगुण-साकाररूप में स्थित है, ऐसी दृष्टि (निश्चय) करके, उसी में मन लगाओ। |
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