सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग केदारौ
(2) प्राणप्यारे त्रिभंगसुन्दर कमलदललोचन श्यामसुन्दर! मैं आपके चरणकमलों की वन्दना करता हूँ। (प्रभो! आपके) जो चरणकमल भगवान् शंकर के सदा (परम) धन हैं, (जिन्हें) सन्धुसुता लक्ष्मी जी अपने हृदय से कभी दूर नहीं करतीं, (अपने) पिता हिरण्यकशिपु के क्रोध से कष्ट पाते हुए भी प्रह्लाद जी ने जिन पादपद्मों को मन, वचन और कर्म से सँभाल रखा (घोर कष्ट में भी जिनको वे भूले नहीं), जिन पादकमलों के स्पर्श से पवित्र हुआ जल (पादोदक) ही भगवती गंगा हैं, जिनका दर्शन करने से ही महान् पाप भी नष्ट हो जाते हैं, जिन चरणों का स्पर्श करके ऋषि पत्नी अहल्या तथा दैत्यराज बलि, राजा नृग, व्याध एवं (दूसरे भी) बहुत से पतित मुक्त हो गये, जो चरणकमल वृन्दावन में विचरण करते थे, (जिन्हें) कालियनाग के सिर पर (आपने) धरा और (जिन चरणों से व्रज में चलकर) अगणित शत्रुओं का संहार किया, जिन चरणकमलों का स्पर्श पाकर व्रजगोपियों ने (उनपर अपना) सर्वस्व न्योछावर कर दिया तथा घर, पुत्रादिकों को भी विस्मृत हो गयीं, जिन चरणकमलों से (आप) पाण्डवदल में घूमते रहे, उनके दूत बने तथा उनके सब काम बनाये, सूरदास जी कहते हैं कि (हे श्यामसुन्दर!) आपके वही चरणकमल हमारे (आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक) तीनों तापों को तथा समस्त दुःखों को हरण करने वाले हैं। |
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