सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग आसावरी
(248) (हे प्रभु!) आपको पतित-पावन जानकर मैं (आपकी) शरण में आया हूँ। संसाररूपी समुद्र से पार होने के लिये आपका नाम ही शुभ नौका है। वेदों ने आपके जिस अविचल स्वधाम का वर्णन किया है, उसे (उसी नाम के आश्रय से) व्याघ्र, गृध्रराज जटायु, गणिका एवं अजामिल ब्राह्मण ने प्राप्त किया तथा गौतम मुनि की स्त्री अहल्या ने उसे आपके चरणों का स्पर्श करके पा लिया। अन्तिम समय में जल में डूबते-डूबते आधे ही नाम का उच्चारण करके स्मरण करने से गजराज को आपने ग्राह से छुड़ा दिया। निर्बल प्रह्लाद और (उनके पौत्र) बलि दैत्य होने पर भी सुख पूर्वक आपका भजन करते थे, (और) आपके भक्त ध्रुव ने आपके चरणों में मस्तक झुकाया तथा (उन्होंने) चित्त (भी) लगाया। अपने महान सेवक समझ कर पाण्डवों को आपने विपत्तियों से मुक्त किया और (कौरव-सभा में) द्रौपदी का वस्त्र अपार बढ़ा दिया। आप भक्त वत्सल हैं, कृपा के स्वामी हैं, शरण हीनों को शरण देने वाले हैं, पृथ्वी का भार दूर करने वाले हैं- इस प्रकार आपकी परम सुहावनी ख्याति है। आपके जिन चरणों का ब्रह्मा, शिव, शेष, शुकदेव तथा सनकादि ध्यान करते हैं हे स्वामी! उन्हीं चरणों को सूरदास भी अपने चित्त से स्मरण करके उसे चैतन्य करता है। (आपके चरणों के स्मरण से ही मेरे चित्त में भी चैतन्य- ज्ञान का उदय हुआ है)। |
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