सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग धनाश्री
(267) हरि जी! मैं इसी से दुःखपात्र (दुःख भोगने का अधिकारी) बन गया हूँ; क्योंकि न तो श्री गिरिधरलाल के चरणों में मेरा प्रेम हुआ और न विषय सुख मात्र (समस्त विषय-वासना) -को मैं छोड़ ही सका। जब धनवान था, तब बुरे कर्मों ने धन खर्च करता रहा और व्रजभूमि की यात्रा नहीं की, आपके सेवकों (भक्तों) का पोषण (सेवा) नहीं किया, केवल अपने शरीर का ही पोषण करता रहा। मकान को सजाया, स्त्री-सुख में लुभाया रहा, पुत्र, सवारियाँ, कुटुम्बी, भाई आदि में आसक्त रहा, महापुरुषों के समीप नहीं गया (सत्संग नहीं किया), विधाता के विधान को समझा नहीं (कि धन और शरीर-बल नष्ट हो कर रहेगा)। सब दिन रात (सब समय) छल करके, बलपूर्वक (चाहे जैसे) जहाँ-तहाँ से (चाहे जिससे) दूसरों का धन हरण करने में दौड़ता रहा। दाँता (खेती का एक औजार- हँसुआ) लेकर मैंने जो यह (अपकर्मों की) खेती की, उससे मेरे सिर पर शुद्ध और अशुद्ध कर्मों का बहुत भार बढ़ गया। मेरा मलिन हृदय कामना की भूमि है (उससे सदा नाना प्रकार की कामनाएँ उत्पन्न होती रहती हैं), तृष्णा रूपी जल से भरा और कलियुग के मलों (पापों) का तो बर्तन ही है। ऐसे कुबुद्धि जाट (दुर्बुद्धि मूर्ख) सूरदास की हे स्वामी्! आपको छोड़ कर कोई रक्षा करने वाला नहीं है। |
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