सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग धनाश्री
(281) सभी दिन एक-समान व्यतीत नहीं होते हैं; अतः जब तक शरीर नीरोग है, तब तक श्री हरि का स्मरण और भजन किया कर। कभी तो चंचला लक्ष्मी को पाकर टेढ़े-टेढ़े जाता (गर्व से कुमार्ग में चलता) है और कभी (दरिद्र होने पर) रास्ते-रास्ते की धूलि समेटता फिरता है और भोजन के लिये (भूख से) क्रन्दन करता हैं धन और युवावस्था के मद में मतवाला हो कर इस (नाशवान्) शरीर का गर्व करता हैं मैं बड़ा हूँ, मैं बड़ा हूँ, इस प्रकार बहुत (अहंकार करके) कहा करता है और (सीधे सरलता से) बात भी नहीं करता। सभी दिन (पूरा जीवन) वाद-विवाद और खेलने तथा खाने में ही व्यतीत हो गया। न योग किया, न दूसरा कोई साधन किया, न ध्यान किया, न पूजा की; अब वृद्ध होने पर पश्यात्ताप करता हैं सूरदास जी इसीलिये कहते हैं कि अरे मनुष्य ! व्यर्थ क्यों गर्व करता हैं अब भी (अपने को) सँभाल (बचा) ले। भगवान का भजन किये बिना शरीर को भी कहीं सुख मिलता नहीं है। |
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