(28)
ऐसैहिं जनम बहुत बौरायौ।
विमुख भयौ हरि-चरन कमल तजि, मन संतोष न आयौ।
जब जब प्रगट-भयौ जल थल मैं तब तब बहु बपु धारे।
काम क्रोध-मद-लोभ-मोह-बस, अतिहिं किए अघ भारे।
नृग, कपि, बिप्र, गीध, गनिका गज कंस-केसि-खल तारे।
अध, बक, वृषभ, बकी, धेनुक हति, भव-जल निधि तै उबारे।
संखचूड़ मुष्टिक, प्रलंब अरु तृनाबर्तं संहारे।
गज-चानूर हते दव नास्यौ, ब्याल मथ्यौ, भयहारे।
जन दुख जानि, जमलद्रुम-भंजन, अति आतुर ह्वै धाए।
गिरि कर धारि इन्द्र-मद मरद्यौं, दासनि सुख उपजाए।
रिपु कच गहत द्रुपद-तनया जब सरन सरन कहि भाषी।
बढ़े टुकूल-कोट अंबर लौं, सभा-मांझ पति राखी।
मृतक जिवाइ दिए गुरु के सुत, ब्याध परम गति पाई।
नंद-बरुन-बंधन-भय मोचन, सुर पतित सरनाई ।।28।।
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