सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग धनाश्री
हे स्वामी! मेरे पतित और कोई नहीं है। अबतक मैंने बहुत प्रयत्न किया; किंतु अब भी मुझसे अवगुण (दोष) छूटते नहीं। जैसे बन्दर घुँघुचियों को एकत्र करके पास सँभालकर रखता है, किंतु उनको छूने से किसी प्रकार भी सर्दी मिटती नहीं, वैसे ही (दुःख-निवारण के लिये भोगों को एकत्र करने के प्रयत्न में व्यर्थ ही लगकर) अनेक जन्मों से मैं भटकता आ रहा हूँ। स्त्री और धन के सुख से मोहित हुआ और उनमें ही ममता और मोह बढ़ाये रहा! जैसे मछली चारे के लोभ से कँटियाँ में फँस जाती है, वैसे ही मैं जीभ के स्वाद में उलझा रहा, मृत्यु का फंदा मुझे दीखा ही नहीं। जैसे कोई सो रहा हो और स्वप्न में दूसरे की सम्पत्ति पाकर हर्षित हो, किंतु जग जाने पर कुछ हाथ न लगे, वैसे ही संसार की सब प्रभुता (क्षणभंगुर एवं मिथ्या) है। श्रीगिरिधरलाल के चरणों की सेवा नहीं की, (उलटे) बहुत अन्याय किये। प्रभो! इस पतित सूरदास के लिये कहीं स्थान नहीं है, अतः इसे आप अपनी शरण में रख लें। |
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