सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग धनाश्री
(221) जो अत्यन्त उपयोगहीन होता है, उसके भी शरण में आने की लज्जा (शरणदाता को) होती ही है। यद्यपि मैं बुद्धि, बल एवं वैभव से रहित हूँ, फिर भी आप अपनी कृपा की लज्जा रखते हैं; अतः मेरा निर्वाह हो रहा हैं यदि धारा में बहता हुआ कोई अपने हाथ से किनारे के तिनके को पकड़ ले तो वह जड़ एवं मलिन तिनका भी उसके शरीर की रक्षा करता है, रक्षा करने में असमर्थ होने पर अपनी जड़ एवं किनारे को ही व्याकुल हो कर छोड़ देता है, परंतु अपने आश्रित को नहीं छोड़ता। (जब एक तृण में इतनी शरणागत वत्सलता है) तब हे प्रभु! तुम तो अज्ञेय, अनादि एवं समस्त लोकों के स्वामी हो और मैं अज्ञानी बुद्धिहीन हूँ। वहाँ आपके लिये तो मेरे समीप लगा लेने में (मुझे अपना लेने में) कुछ लगता नहीं और यहाँ यह दीन मग्न (आनन्दित) हो जाता हैं सूरदास जी कहते हैं- (लोगों के) परिहास की अत्यन्त प्रबल वेदना रात-दिन रहती है (लोग रात-दिन परिहास किया करते हैं, भक्ति का मजाक उड़ाते हैं); इसी से यह बात मुख से निकल जाती है कि श्री गोपाल के शरणागत होने पर किसने सद्गति नहीं प्राप्त की (शरणागत तो सद्गति पायेगा ही)। |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पद | पृष्ठ संख्या |