सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग धनाश्री
हे दीनों पर दया करने वाले! करुणासागर! भक्तों के आनन्ददाता! वही कुछ कीजिये, जिससे आपका यह जन एक क्षण के लिये भी आपके चरणों को न छोड़े। (मेरी) इन्द्रियाँ अजेय हैं, बुद्धि विषयभोग में लगी है, मन की सदा ही उलटी गति रहती है (वह आपसे विमुख रहता है)। काम, क्रोध, मद और लोभ के महान् भय से हे स्वामी! मैं रात-दिन बेहाल (व्याकुल) रहता हूँ। योग के साधन, जप, तपस्या, तीर्थ-यात्रा, व्रत इनमें से एक भी करना मेरे भाग्य में नहीं लिखा है (मैं इन्हें कर ही नहीं सकता)। हे श्यामसुन्दर! नन्दलाल! (ऐसी दशा में) मैं क्या करूँ? आपको किस प्रकार प्रसन्न करूँ? हे सर्वसमर्थ! सर्वज्ञ! कृपानिधि! अशरण-शरण! संसार-रूपी जाल के हरणकर्ता! दयानिधान! आप ही सूरदास की यह गति (हाल) सुनें! यह (मैं) कृपण इस समय और किससे (अपनी यह दशा) कहूँ? |
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