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भक्ति बिना जौं कृपा न करते, तौ हौं आस न करतौ ।
बहुत पतित उद्धार किए तुम, हौं तिनकौं अनुसरतौ ।।
मुख मृदु-बचन जानि मति जानहु्, सुद्ध पंथ पग धरतौ ।
कर्म वासना छाँड़ि कबहुँ नहिं साप पाप आचरतौ ।।
सुजन-वेष-रचना प्रति जनमनि, आयौ पर-धन हरतौ ।
धर्म-धुजा अंतर कछु नाहीं, लोक दिखावत फिरतौ ।।
परतिय-रति-अभिलाष निसा-दिन, मन पिटरी लै भरतौ ।
दुर्मति, अति अभिमान, ज्ञान बिन, सब साधन तैं टरतौ ।।
उदर-अर्थ चोरी-हिंसा करि, मित्र-बंधु सौं लरतौ ।
रसना-स्वाद-सिथिल, लंपट ह्वै, अघटित भोजन करतौ ।।
यह ब्यौहार लिखाइ, रात-दिन, पुनि जीतौ पुनि मरतौ ।
रवि-सुत-दूत बारि नहिं सकते, कपट घनौ उर बरतौ ।।
साधु-सील, सद्रूप पुरुष कौ, अपजस बहु उच्चरतौ ।
औघड़-असत-कुचीलनि सों मिलि, माया-जल मैं तरतौ ।।
कबहुँक राज-पान-मद-पूरन, कालहु तैं नहिं डरतौ ।
मिथ्या वाद आप-जस सुनि-सुनि, मूछहिं पकरि अकरतौ ।।
इहिं बिधि उच्च-अनुच तन धरि-धरि, देस बिदेस बिचरतौ ।
तहँ सुख मानि, बिसारि नाथ-पद, अपनै रंग बिहरतौ ।।
खर-कूकर की नाइँ मानि सुख, बिषय-अगिनि मैं जरतौ ।
तुम गुन कौ जेसैं मिति नाहिं न, हौं अघ कोटि बिचरतौ ।।
तुम्हैं हमैं प्रतिवाद भए तै गौरव काकौ गरतौ ?
मोतैं कछू न उबरी हरि जू, आयौ चढ़त-उतरतौ ।
अजहूँ सूर पतित-पद तजतौ, जौ औरहु निस्तरतौ ।।214।।
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