सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग धनाश्री
हे प्रभु! शरण में आये की लज्जा रखिये। मुझसे कोई धर्म, पवित्रता, शील, तप, व्रत आदि साधते नहीं बना, तब क्या मुख लेकर आपसे प्रार्थना करूँ। कुछ कहना तो चाहता हूँ, किंतु मन में संकोच करके चुप रह जाता हूँ, अपने कर्मों को देखकर (प्रार्थना करने में भी) भय लगता है। मुझे यही एक बल है, यही मेरा आधार है कि आपके पतितपावन यश का वेद भी गान करते हैं। जन्म से लेकर निर्निमेष (निरन्तर) यही आशा लगी रही है। (इसी आशा के कारण) विषयरूपी विष को खाने में (विषय सेवन में) कभी तृप्ति नहीं मानी। जिस माया को मन एवं वमन के समान सभी संतों ने त्याग कर दिया है, उसी से इस मूढ़बुद्धि ने प्रेम कर रखा। जहाँ तक मेरी स्मरण शक्ति है (जहाँ तक मुझे स्मरण है) जितने भी पाप-मार्ग हैं, उन सबका मैंने अनुसरण किया है, कोई भी (पाप) मुझसे बचा नहीं है। यह सूरदास अवगुणों से भरा है; किंतु हे गोपाल! अब तुम्हारे दरवाजे पर आकर पड़ गया है और तुम्हारी ताक रहा है। (तुम इसे अब शरण में ले लो!)
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