सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग केदारौ
(299) हे भगवन्! (मुझे) अपनी भक्ति दीजिये। (यदि आप) करोड़ों लालच भी दिखायें, तो भी मुझे और कोई (पदार्थ पाने की) रुचि नहीं है। जिस दिन से जन्म पाया है, तब से मेरी रीति (मेरा स्वभाव) यही रहा है कि विषय-भोग रूपी विष को हठ पूर्वक खाता रहा। अन्याय करने में कभी डरा नहीं। ज्वाला (तीनों तापों) जलता हूँ, पर्वत (उच्च स्थिति) से गिरता हूँ और अपने हाथों अपना मस्तक काटता हूँ (स्वतः अपनी हानि करता हूँ)। किंतु मेरा साहस देख कर शंकर जी भी संकुचित होते हैं, वे मेरी रक्षा नहीं कर सकते। कभी करोड़ों कामनाएँ करके बहुत-से पशुओं की हत्या की (बलि दी); किंतु (इतने पर भी) जैसे सिंह का बच्चा घर छोड़ते डरे, उसी प्रकार इन्द्रादि देवता मेरे घर आने में भी डरते हैं। अनेक बार यमलोक जा कर नरक के कुओं में पड़ा; (वहाँ भी) यमराज के सेवकों के दल-के-दल मुझे हटाते-हटाते थक गये, उनके टालने से मैं थोड़ा भी हटा नहीं (इतना अधिक पाप का मुझ पर भार है)। मैं अत्यन्त हठी हूँ, मारने का (कोई मुझे मारेगा, इसका) मुझे कोई संकोच (लज्जा) नहीं है। अब तो (न हटने की) प्रतिज्ञा करके तुम्हारे दरवाजे पर पड़ा हूँ, अपनी (पतित पावन) प्रतिज्ञा की लज्जा तो आपको है। हे कृपानिधान! मैं कच्चा नहीं हूँ (जो यहाँ से हट जाऊँगा)। आप क्रोध करके क्या करेंगे; यह सूरदास तो तब भी आपका दरवाजा नहीं छोड़ेगा, जब आप यहाँ से निकलवा देंगे (फिर-फिर मैं तुम्हारे द्वार पर ही आ बैठूँगा)। |
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