(136)
औसर हार्यौ रे, तैं हार्यौ ।
मानुष-जनम पाइ नर बौरे, हरि कौ भजन बिसार्यौ ।
रुधिर बूँद तैं साजि कियौ तन सुंदर रूप सँवार्यौ ।
जठर अगिनि अंतर उर दाहत, जिहिं दस मास उबार्यौ ।
जब तैं जनम-लियौ जग भीतर, तब तैं तिहि प्रतिपार्यौ ।
अंध, अचेत, मूढ़मति, बौरे, सो प्रभु क्यों न सँभार्यौ ?
पहिरि पटंबर, करि आडंबर, यह तन झूठ सिंगार्यौ ।
काम-क्रोध-मद-लोभ, तिया-रति, बहु बिधि काज बिगार्यौ ।
मरन भूलि, जीवन थिर जान्यौ, बहु उद्यम जिय धार्यौ ।
सुत दारा कौ मोह अँचै विष, हरि-अम्रित-फल डार्यौ ।
झूठ-साँच करि माया जोरी, रचि-पचि भवन सँवार्यौ ।
काल-अवधि पूरन भइ जा दिन, तनहूँ त्यागि सिधार्यौ ।
प्रेत-प्रेत तेरौ नाम पर्यौ , जब, जेंवरि बाँधि निकार्यौ ।
जिहि सुत कैं हित बिमुख गौबिद तैं, प्रथम तिहीं सुख जार्यौ ।
भाई-बंधु कुटुंब-सहोदर, तब मिलि यहै बिचार्यौ ।
जैसे कर्म, लहो फल तैसे, तिनुका तोरि उचार्यौ ।
सतगुरु कौ उपदेश हृदय धरि, जिन भ्रम सकल निवार्यौ ।
हरि भजि बिलँब छाँड़ि सूरज सठ, ऊँचे टेरि पुकार्यौ ।।136।।
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