सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग धनाश्री
(201) ऐसे (कर्म) करते हुए अनेक जन्म बीत गये, किंतु मन को संतोष नहीं प्राप्त हुआ। दिनों दिन दुराशा बढ़ती ही गयी, उस दुराशा में लगा सम्पूर्ण लोकों में घूम आया। स्वर्ग, रसातल तथा पृथ्वी (के सुखों) की बातें बार-बार सुनकर बार-बार उन-उन स्थानों में उठकर दौड़ा गया, किंतु काम, क्रोध, मद और लोभ की अग्नि की ज्वाला कहीं भी बुझी नहीं (सर्वत्र इन दोषों से संतप्त ही रहा)? पुत्र-पुत्री, स्त्री (परिवार) के आमोद-विनोद की आसक्ति ज्वर के समान है, इस ज्वर के ताप से सदा जलता रहा। मैं अज्ञानी हूँ, व्याकुल होकर ज्वाला में मैंने और अधिक घी डाल दिया (भोग-तृष्णा से व्याकुल होकर और भोगपदार्थों का सेवन करता रहता) भटकते-भटकते अब अपने हृदय में यह देखकर हार गया (निराश हो गया) हूँ कि सारे संसार में अग्नि व्यापक हो गयी है (सारा विश्व तृष्णा से जल रहा है)। सूरदास जी कहते हैं- हे प्रभो! आपकी कृपा के बिना यह संताप कैसे नष्ट किया जा सकता है? |
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