हरि-मुख देखि हो बसुदेव।
कोटि-काम-स्वरूप सुंदर, कोउ न जानत भेव।
चारि भुज जिहिं चारि आयुध, निरखि कै न पत्याउ।
अजहुँ मन परतीति नाहीं नंद-घर लै जाउ।
स्वान सूते, पहरुवा सब, नींद उपजी गेह।
निसि अँधेरी, बीजु चमकै, सघन बरषै मेह।
बंदि बेरी सबै छूटी, खुले बज्र-कपाट।
सीस धरि श्रीकृष्न लीने, चले, गोकुल-बाट।
सिंह-आगैं, सेस पाछैं, नदी भइ भरिपूरि।
नासिका लौं नीर बाढ़यौ, पार पैलो दूरि।
सीस तैं हुंकार कीनी जमुन जान्यौ भेव।
चरन परसत थाह दीन्ही, पार गए बसुदेव।
महिर-ढिग उन जाइ राखे, अमर अति आनंद।
सूरदास बिलास ब्रज-हित, प्रगटे आनँद-कंद॥5॥