बाल विनोद भावती लीला 3 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग सारंग


गोकुल जनम लेहु सँग मेरैं, जो चाहत सुख कीन्हौ।
जेहिं माया बिरंचि सिव मोहे, वहै बानि करि चीन्हौ।
देवकि गर्भ अकर्षि रोहिनी, आप बास करि लीन्हौ।
हरि कैं गर्भ-बास जननी कौ बदन उजारौ लाग्यौ।
मानहुँ सद-चंद्रमा प्रगट्यौ, सोच-तिमिर तन भाग्यौ।
तिहिं छन कंस आनि भयौ ठाढ़ौ देखि महातम जाग्यौ।
अबकी बार आपु आयौ है अरी, अपुनपौ त्याग्यौ।
दिन दस गएँ देवकी अपनौ बदन बिलोकन लागी।
कंस-काल जिय जानि गर्भ मैं, अति आनंद सभागी।
सुर-नर-देव बंदना आए, सोवत तैं उठि जागी।
अबिनासी कौं आगम जान्यौ, सकल देव अनुरागी।
कछु दिन गएँ गर्भ कौ आलस, उर-देवकी जनायौ।
कासौं कहौं सखी कोउ नाहिंन, चाहति गर्भ दुरायौ।
बुध-रोहिनी-अष्टमी-संगम, बसुदेव निकट बुलायौ।
सकल लोकनायक, सुखदायक, अजन, जन्म धरि आयौ।
माथैं मुकुट, सुभग पीतांबर, उर सोभित भृगु-रेखा।
संख-चक्र-गदा-पदम बिराजत, अति प्रताप सिसु-भेषा।
जननी निरखि भई तन ब्याकुल, यह न चरित कहुँ देखा।
बैठी सकुचि, निकट पति बोल्यौ, दुहुँनि पुत्र-मुख पेखा।
सुनि देवकि, एक आन जन्म की, तीकौं कथा सुनाऊँ।
तैं मांग्यौ, हौं दियौ कृपा करि, तुम सौ बालक पाऊँ।
सिव-सनकादि आदि ब्रह्मादिक ज्ञान ध्यान नह आऊँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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