सूरसागर प्रथम स्कन्ध पृ. 78

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सूरसागर प्रथम स्कन्ध-78

विनय राग


157.राग केदारौं
जो पै तुमहीं बिरद बिसारौ
तौ कहाँ कहाँ करूनामय, कृपिन करम को मारौं!
दीन-दयाल, पतित-पावन, जस वेद बखानत चारौ।
सुनियत कथा पुरानन, गानिका, व्‍याघ, अजामिल तारौ।
राग-द्वैष, विधि-अबिधि, असुचि-सुचि, जिहिं प्रभु जहाँ सँभारौ।
कियौ न कबहुँ विलम्‍ब कृपानिधि, सादर सोच निबारौ।
अगणित्त गुण हरि नाम तिहारैं, अजौ अपुनपौ धारौ।
सूरदास-स्‍वामी, यह जन अब करत करत श्रम हारी।

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158.राग सारंग
ऐसे और बहुत खल तारे।
चरन-प्रताप, भजन-महिमा कौं को कहि सकै तुम्‍हारे।
दुखित गयंद, दुष्‍ट मति गनिका, नृग कूप उधारे।
विप्र बजाइ चल्‍यौ सुत कै हित, कटे महा दुख भारे।
व्‍याघ, गीध, गौतम की नारी, कहाँ कौन व्रत धारे ?
केसी, कंस, कुबलया, मुष्टिक, सब सुख-धाम सिधारे।
उरजनि कौं विष बाँटि लगायौ, जसुमति की गति पाइ।
रजक-मल्‍ल-चानूर-दवानल-दुख,-भंजन सुखदाई।
नृप सिसुपाल महा पद पायौ, सर-अवसर नहिं जान्‍यौ।
अध-वक तृनावर्त-धेनुक इति, गुन गहि दोष न मान्‍यौ।
पांडु-बधू पटहीन सभा मैं कोटिनि बसन पुजाए।
विपति काल सुमिरत तिहिं अवसर जहाँ तहाँ उठि धाए।
गोप गाइ-गोसुत जल-त्रासत, गोवर्धन कर धारयौ।
संतत दीन, हीन अपराधी, काहैं सूर विसारयौ ?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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