155.राम धनाश्री
जनम तौ बादिहि गयौ सिराइ।
हरि-सुमिरन नहिं गुरु की सेवा, मधुवन बस्यौ न जाई।
अब की बार मनुष्य-देह धरि, कियौ न कछू उपाइ।
भटकत फिरयौ स्वान की नार्इ नैकु जूठ कैं चाह।
कबहूँ न रिझए लाल गिरिधरन, विमल-विमल जस गाई।
प्रेम सहित पग बाँधि घूंघरू सक्यौ न अंग नचाइ।
श्री भागवत सुनी नहिं स्त्रवननि नैंकहुँ रुचि उपजाइ।
आनि भक्ति करि, हरि-भक्तिनि के कबहुँ न धोए पाइ।
अब हौं कहा करौं करूनामय, कीजै कोन उपाइ।
भव-अंबोधि, नाम-निज-नौका, सूरहि लेहु चढाइ।
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156.राग गौरी
माधौ जू, तुम कब जिय बिसरौ ?
जानत सब अंतर की करनी, जो मैं करम करयौ।
पतित-समूह सबै तुम तारे, हुतौ जु लोक भरयौ।
हौं उनतैं न्यारौ करि डारयौ, इहिं दुख जात मरयौ।
फिर-फिर जोनि अनंतनि भरम्यौ, अब सुख ‘सरन परयौ।
इहिं अवसर कत बाँह छुड़ावत, इहिं डर अधिक डरयौ।
हौं पापी, तुम पतित-उबारन, डारे हौं कत देत ?
जौ ज नौ यह सूर पतित नहिं, तौ तारौ निज हेत।
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