सुनौ गोपी हरि कौ संदेस।
करि समाधि अंतरगति ध्यावहु, यह उनको उपदेश।।
वै अविगत अविनासी पूरन, सबघट रहे समाइ।
तत्त्व ज्ञान बिनु मुक्ति नहीं है, वेद पुराननि गाइ।।
सगुन रूप तजि निरगुन ध्यावहु, इक चित इक मन लाइ।
यह उपाइ करि बिरह तरौ तुम, मिलै ब्रह्म तब आइ।।
दुसह सँदेस सुनत माधौ कौ, गोपी जन बिलखानी।
‘सूर’ विरह की कौन चलावै, बूड़ति मनु बिनु पानी।।3502।।