रे मन निपट निलज अनिति -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग धनाश्री



            

रे मन, निपट निलज अनिति।
जियत की कहि को चलावै, मरत विषयनि प्रीति।
स्‍वान कुब्‍ज, कुपंगु कानौ, स्रवन-पुच्‍छ–बिहीन।
भग्‍न भाजन कंठ, कृमि सिर, कामिनी-आधीन।
निकट आयुध बधिक धारे, करत तोच्‍छन धार।
अजा-नायक मगन क्रीड़त, चरत बारंबार।
देह छिन-छिन होति छीनि, दृष्टि देख लोग।
सूर स्‍वामी सौं बिमुख ह्वै, सती कैसे भोग।।321।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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