रे मन, निपट निलज अनिति।
जियत की कहि को चलावै, मरत विषयनि प्रीति।
स्वान कुब्ज, कुपंगु कानौ, स्रवन-पुच्छ–बिहीन।
भग्न भाजन कंठ, कृमि सिर, कामिनी-आधीन।
निकट आयुध बधिक धारे, करत तोच्छन धार।
अजा-नायक मगन क्रीड़त, चरत बारंबार।
देह छिन-छिन होति छीनि, दृष्टि देख लोग।
सूर स्वामी सौं बिमुख ह्वै, सती कैसे भोग।।321।।