रे मन, समुझि सोचि बिचारि।
भक्ति बिनु भगवंत दुर्लभ, कहत निगम पुकारि।
धारि पासा साधु संगति, फेरि रसना-सारि।
दाऊँ अबकैं परयौ पूरो, कुमति पिछली हारि।
राखि सतरह, सुनि अठारह, चोर पाँचौ मारि।
डारि दै तू तीनि काने, चतुर चौक निहारि।
काम क्रोधऽरू लोभ मोह्यौ, ठग्यौ नागरि नारि।
सूर श्री गोबिंद-भजन बिनु, चले दोउ कर झारि।।309।।