होउ मन, राम-नाम कौ गाहक।
चौरासी लख जीव-जोनि मैं भटकत फिरत अनाहक।
भक्तनि हाट बैठि अस्थिर ह्वै, हरि नग निर्मल लेहि।
काम-क्रोध-मद-लोभ-मोह तू, सकल दलाली देहि।
करि हियाव, यह सौंज लादि कै, हरि कै पुर लै जाहिं।
घाट-बाट कहुँ अटक होइ नहिं सब कोउ देहि निवाहि।
और बनिज मैं नाहीं लाहा, होति मल मैं हानि।
सुर स्याम कौ सौदा साँचौ, कह्यौ हमारौ मानि।।310।।