मेरे हृदय नाहिं आवत हो, हे गुपाल, हौं इतनी जानत !
कपटी, कृपन, कुचील, कुदरसन्, दिन उठि बिषय-वासना बानत।
कदली कंटक, साधु असाधुहिं, केहरि कैं सँग धेनु बँधाने।
यह विपरीति जानि तुम जन की, अंतर दै बिच रहे लुकाने।
जो राजा-सुत होइ भिखारी, लाज परे ते जाइ बिकाने।
सूरदास प्रभु अपने जन कौ कृपा करहु जौ लेहु निदाने।।।217।।
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