हरि जू, हौं यातैं दुख-पात्र।
श्री गिरिधरन-चरन-रति ना भई तजि बिषया-रस मात्र।
हुतौ आढ्य तब कियौ असद्व्यय, करी न ब्रज-बन-जात्र।
पोषै नहिं तुब दास प्रेम सौं, पोष्यौ अपनौ गात्र।
भवन सँवारि, नारि-रस लोभ्यौ, सुत, बहन, जन, भ्रात्र।
महानुभाव निकट नहिं परसे, जान्यौ न कृत-विधात्र।
छल-बल करि जित-तित हरि पर-धन धायौ सब दिन-रात्र।
सुद्धासुद्ध बोझ बहु बह्यौ सिर, कृषि जु करी लै दात्र।
हृदय कुचील काम-भू-तृष्ना-जल-कलिमल है पात्र।
ऐसे कुमति जाट सूरज कौं प्रभु बिनु कोउ न धात्र।।।216।।
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