माधौ जू मोतै और न पापी -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग सारंग



माधौ जू मोतै और न पापी
घातक, कुटिल, चबाई, कपटी, महाक्रूर संतापी।
लंपट, धूत, पूत दमरी कौ, विषय-जाप कौ जापी।
भच्छि अभच्‍छ, अपान पान करि, कबहुँ न मनसा घापी।
कामी, विसय कामिनी कै रस, लोभ-लालसा थापी।
मन-क्रम-वचन-दुसह सबहिनि सौं कटुक-बचन-आलापी।
जेतिक अधम उधारे प्रभु तुम, तिनकी गति मैं नापी।
सागर-सूर बिकार भरयौ जल, बधिक अजामिल बापी।।।140।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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