माधौ जू तुम कब जिय बिसरौ -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग गौरी




माधौ जू, तुम कब जिय बिसरौ ?
जानत सब अंतर की करनी, जो मैं करम करयौ।
पतित-समूह सबै तुम तारे, हुतौ जु लोक भरयौ।
हौं उनतैं न्‍यारौ करि डारयौ, इहिं दुख जात मरयौ।
फिर-फिर जोनि अनंतनि भरम्‍यौ, अब सुख ‘सरन परयौ।
इहिं अवसर कत बाँह छुड़ावत, इहिं डर अधिक डरयौ।
हौं पापी, तुम पतित-उबारन, डारे हौं कत देत ?
जौ ज नौ यह सूर पतित नहिं, तौ तारौ निज हेत।।156।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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