जनम तौ बादिहिं गयौ सिराइ।
हरि-सुमिरन नहिं गुरु की सेवा, मधुवन बस्यौ न जाइ।
अब की बार मनुष्य-देह धरि, कियौ न कछू उपाइ।
भटकत फिरयौ स्वान की नार्इ नैकु जूठ कैं चाह।
कबहूँ न रिझए लाल गिरिधरन, विमल-बिमल जस गाई।
प्रेम सहित पग बाँधि घूँघरू सक्यौ न अंग नचाइ।
श्री भागवत सुनी नहिं स्त्रवननि नैंकहुँ रुचि उपजाइ।
आनि भक्ति करि, हरि-भक्तिनि के कबहुँ न धोए पाइ।
अब हौं कहा करौं करुनामय, कीजै कोन उपाइ।
भव-अंबोधि, नाम-निज-नौका, सूरहिं लेहु चढ़ाइ।।155।।