बौरे मन, रहन, अटल करि जान्यौ।
धन-दारा-सुत-बंधु-कुटुंब-कुल, निरखि निरखि बौरान्यौ।
जीवन जन्म अल्प सपनौ सौ, समुझि देखि मन माहीं।
बादर-छाँह धूम-धौराहर, जैसै थिर न रहाहीं।
जब लगि डोलत, बोलत, चितवत, धन-दारा हैं तेरे।
निकसत हंस, प्रेत कहि तजिहैं, कोउ न आवै नेरे।
मूरख, मुग्ध, अजान, मूढ़मति, नाहीं कोऊ तेरौ।
जो कौऊ तेरौ हितकारी, सो कहै काढि सवेरौ।
धरी इक सजन-कुटुंब मिलि बैठै, रुदन बिलाप कराहीं।
जैसै काग काग के मूऐं, काँ-काँ करि उड़ि जाहीं।
कृमि-पावक तेरौ तन भखिहै, समुझि देखि मन माहीं।
दीन-दयाल सूर हरि भजि लै, यह अवसर फिरि नाहीं।।319।।