बातै बूझत यौं बहरावति।
सुनहु स्याम वै सखी सयानी, पावस रितु राधेहिं न सुनावतिं।।
घन देखत गिरि कहतिं कुसल मति, गरजत, गुहा सिंह समुझावतिं।
नहिं दामिनि द्रुम दवा सैल चढ़ि, करि बयारि उलटी झर धावति।।
नाहिंन मोर बकत पिक दादुर, ग्वाल मण्डली खगनि खिलावति।
नहिं नभ बृष्टि झरत झरना जल, परि परि बुंद उचटि इत आवति।।
कबहुँक प्रगट पपीहा बोलत, कहि कुपच्छि कर तारि बजावतिं।
'सूरदास' प्रभु तुम्हरे मिलन बिनु, सो विरहिनि इतनौ दुख पावति।।4146।।