नैकहु सोच न काहू कीन्हौ -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग नट


नैंकहु सोच न काहू कीन्हौ।
सुनि ब्रजनाथ सबनि के औगुन, मिलि मिलि है दुख दीन्हौ।।
रितु बसंत अनसमै अधम मति, पिक सहाइ लै धावत।
प्रीतम संग जानि जुवती रुचि, बोलेहूँ नहि आवत।।
सदा सरद रितु सकल कला लै, सनमुख रहत जुन्हाई।
सो सित पच्छ कुहू सम बीतत, कबहुँ न देत दिखाई।।
त्रिविध समीर सुमन सौरभ मिलि, मत्त मधुप गुंजार।
जोइ जोइ रुचै सो कियौ बाँधि बल, तजि तन सकुच विचारि।।
रति पति अति अनीति करिबे कौ, कोटि धूम धुज मानौ।
लै कर धनुष चितै तुम्हरौ मुख, अब बोले तब जानौ।।
इहिं विधि सबनि बीच पायौ ब्रज, काढ़त बैर दुरासी।
'सूरदास' प्रभु बेगि मिलहु अब, पिसुन करत सब हाँसी।।4147।।

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