सब तै परम मनोहर गोपी।
नंदनँदन के नेह मेह जिन, लोक लीक लोपी।।
बरु कुबिजा के रँगहिं राँचे, जदपि तजी सोपी।
तदपि न तजे भजे निसि बासर, नैकहुँ नहिं कोपी।।
ज्ञान कथा कौं मथि मन देख्यौ, ऊधौ बहु धोपी।
टरतिं घरी छिन नैकु न अँखियाँ, स्याम रूप रोपी।।
जिती हुती हरि के अवगुन की, ते सबही तोपी।
'सूरदास' प्रभु प्रेम हेम ज्यौ, अधिक ओप ओपी।।4148।।