निरखि रूप अटकी मेरी अँखिया।
अति रसलुब्ध प्रेमबस सजनी बिधी सहत कौ ज्यौ हठि मखियाँ।।
तोरि कपाट आड़ अचल की गई धाइ काहू नहि लखियाँ।
अब ये अधिक पिराति रैनि दिन करहु जतन सुदर सब सखियाँ।।
राखति हुती बहुत जतननि सौ गुरुजन-लाज-कोट-गढ़ नखियाँ।
'सूरदास' प्रभु मोहन नागर कल कहँ परति रूप जिन चखियाँ।। 49 ।।