निरखत रूप नैन मेरे अटके -सूरदास

सूरसागर

2.परिशिष्ट

भ्रमर-गीत

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निरखत रूप नैन मेरे अटके।
रहत न घरी प्रबल बल उमँगे मधु माखी ज्यौ दोऊ लटके।।
कल नहिं परत धरत नहिं धीरज बिन रसना निसि बासर रट के।
छाँड़ी लाज काज गृह बिसरयौ बोल कुबोल हियै नहिं खटके।।
लै घट गई सुभाइ आपनै भरयौ जाइ जमुनाजल टटके।
दई उठाइ सीस पर गागरि मो तन चितै कोर दृग मटके।।
चचल भौह तबै पहिचानी चलनहार वे औघट घट के।
मै हूँ सोच करयौ जिय अपनै भूलत नही पीत पट कट के।।
मत्र सुमत्र करौ कछु सजनी तृपित होत जैसे अमृत घट के।
'सूरदास' प्रभु ब्रजसुखदायक श्री स्यामा बर नागर नट के।। 48 ।।

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